KARGIL की आग से अनुशासन की राह तक, संघर्ष से सफलता की दास्तान

जम्मू के नगरोटा में जन्मे वैष्णु शंकर का जीवन संघर्ष और साहस की कहानी है। बचपन में पिता का साया खोने से लेकर 1999 के कारगिल युद्ध में सेवा देने तक, और फिर चोट के कारण सेना से रिटायरमेंट के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल के. वी. कृष्ण राव के निजी सचिव और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के पर्सनल असिस्टेंट बनने तक की उनकी यात्रा अनुशासन, समर्पण और कर्तव्य की मिसाल है। स्वर्ण खबर के साथ एक खास बातचीत में उन्होंने अपने जीवन के अनुभव साझा किए।

सवाल-जवाब

स्वर्ण खबर डेस्क (पीयूष गौत्तम)
1) प्रश्न: सबसे पहले, हम जम्मू में आपके जन्म और बचपन के बारे में जानना चाहेंगे ?
उत्तर: मेरा जन्म और पालन-पोषण नगरोटा में हुआ, जो प्रसिद्ध पहला दर्शन कौल कंडोली मंदिर के लिए जाना जाता है। जम्मू में मेरा बचपन उस क्षेत्र की संस्कृति, परंपराओं और आध्यात्मिक वातावरण से गहराई से प्रभावित रहा।
2) प्रश्न: आपके पिता सेना में थे, और आपने उन्हें बहुत कम उम्र में खो दिया। उस घटना ने आपके जीवन को कैसे बदल दिया?
उत्तर: मेरे पिता सैन्य इंजीनियरिंग सेवा में एक सरकारी ठेकेदार के रूप में कार्यरत थे। उनका निधन तब हुआ जब मैं बहुत छोटा था। मृत्यु और जीवन जीवन का हिस्सा हैं, इसलिए मैंने खुद को इस क्षति से ज़्यादा विचलित नहीं होने दिया। बेशक, इसने एक शून्य छोड़ दिया, लेकिन मैंने इसे जीवन की यात्रा के एक हिस्से के रूप में स्वीकार किया और दृढ़ता के साथ आगे बढ़ा।
3) प्रश्न: आपके पिता के निधन के बाद, पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ आपके कंधों पर आ गईं। इतनी कम उम्र में, आपने काम और पढ़ाई दोनों को कैसे संभाला?
उत्तर: मेरी माँ आतंकवाद और आतंकवाद विरोधी अभियानों के चरम के दौरान जम्मू-कश्मीर से शरणार्थी थीं, जब जनरल के. वी. कृष्ण राव राज्य के राज्यपाल थे। मेरे पिता के निधन के बाद, उन्होंने हमारी स्वदेश वापसी सुनिश्चित की। मेरी माँ ने अदम्य साहस के साथ ज़िम्मेदारियाँ संभालीं और हम अपने दोस्तों और आसपास के सैन्यकर्मियों के सहयोग से कामयाब रहे। मैं भारतीय सशस्त्र बलों के हर अधिकारी, जवान और सभी रैंक के उन सभी लोगों का तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने मुझ पर भरोसा जताया। बचपन से लेकर अब तक, मैं सशस्त्र सेवाओं से गहराई से जुड़ा रहा हूँ और उनसे प्रेरित रहा हूँ।
4) प्रश्न: आपको किन कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ा? क्या कभी हार मानने का मन हुआ?
उत्तर: आमतौर पर, कई लोग मुश्किलों का सामना करने पर ज़िंदगी से हार मान लेने के बारे में सोचते हैं। लेकिन मेरा नज़रिया अलग था - मैं ज़िंदगी को एक चुनौती के रूप में लेने और यह देखने में विश्वास करता था कि यह कितनी दूर तक जा सकती है। मैंने मुश्किलों को कभी अंत नहीं माना; बल्कि, मैंने उन्हें आगे बढ़ने के अवसर के रूप में देखा। जैसे बचपन में, जब हम गिरते हैं और फिर अपने दम पर खड़े होते हैं, मैंने भी यही तरीका अपने जीवन में अपनाया। हर बाधा एक सबक बन गई और हर चुनौती एक कदम बन गई।
5) प्रश्न: आप सेना में कब शामिल हुए और वहाँ सेवा करने का आपका अनुभव कैसा रहा?
उत्तर: मुझे अपनी पढ़ाई तब छोड़नी पड़ी जब मैं केवल 9वीं कक्षा में था। मैं मुश्किल से अपनी एसएससी परीक्षा दे पाया और फिर अपने गृहनगर जम्मू-कश्मीर में सेना में शामिल होने का फैसला किया। इसके तुरंत बाद, 1999 का कारगिल युद्ध छिड़ गया और उस पल ने मेरी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल दी। मैंने बिना सोचे-समझे, मोर्चे पर सेवा करने के लिए स्वेच्छा से आगे आ गया।
वह अनुभव अविस्मरणीय था। मैंने खून, जमती बर्फ और बर्फ से ढकी चोटियों को देखा जो साहस की रणभूमि बन गईं। मैंने अपनी आँखों से हमारे वीरों के सर्वोच्च बलिदान को देखा - मेजर पद्मपाणि आचार्य के पार्थिव शरीर, बहादुर कारगिल पायलट जिन्होंने युद्धबंदी के रूप में आठ दिन बिताए, और स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा का सर्वोच्च बलिदान, जिन्होंने मातृभूमि के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया।
उन पलों ने मेरे दिल में एक आग जला दी - गर्व के साथ जीने और सेवा करने की, अपने प्राणों की आहुति देने वालों की वीरता को आगे बढ़ाने की, और खुद को पूरी तरह से राष्ट्र के लिए समर्पित करने की। कारगिल युद्ध ने न केवल हमारी परीक्षा ली, इसने मुझे बलिदान का सच्चा अर्थ सिखाया और मुझे और भी अधिक सम्मान के साथ वर्दी पहनने के लिए प्रेरित किया।
6) प्रश्न: जनरल के निजी सचिव बनने की यात्रा में आप कैसे आगे बढ़े? उस समय सबसे बड़ी चुनौती क्या थी?
उत्तर: अपनी सेवा के दौरान, मैं एक गंभीर दुर्घटना का शिकार हुआ - एक गोला-बारूद का डिब्बा मेरे दाहिने हाथ पर गिर गया, और मेरी तर्जनी उंगली का आकार और उपयोग खो गया। इस चोट के कारण मुझे चिकित्सा आधार पर सेना से छुट्टी दे दी गई। मेरे लिए, वह सबसे दर्दनाक क्षणों में से एक था, क्योंकि वर्दी पहनना मेरा गौरव था।
फिर भी, कारगिल युद्ध की प्रेरणा मेरे दिल से कभी नहीं गई। बाद में मुझे पूर्व सेनाध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल, महान जनरल के. वी. कृष्ण राव के अधीन सेवा करने के लिए स्वदेश भेज दिया गया। मेरे जीवन में जो एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में शुरू हुआ, वह शब्दों से परे एक सम्मान बन गया - उनके निजी सचिव के रूप में सेवा करना और 30 जनवरी 2016 को उनकी अंतिम सांस तक उनके साथ रहना।
उस समय सबसे बड़ी चुनौती अपने दर्द को उद्देश्य में बदलना था - यह स्वीकार करना कि सेना में मेरी प्रत्यक्ष सेवा समाप्त हो गई है, लेकिन राष्ट्र के प्रति मेरा कर्तव्य नहीं। ऐसे महान जनरल की सेवा करने से मुझे शक्ति, मार्गदर्शन और गर्व और निष्ठा के साथ योगदान जारी रखने का अवसर मिला।
7) प्रश्न: जम्मू से आकर इतने ऊँचे पद पर पहुँचना आसान नहीं है। इस यात्रा में आपके साथ कौन लोग खड़े रहे?
उत्तर: भारतीय सशस्त्र बलों के अलावा और कोई नहीं - अधिकारी, जवान और यहाँ तक कि घायल सैनिक भी - जीवन के हर पड़ाव पर मेरे साथ खड़े रहे। उन्होंने हमारी मातृभूमि के मूल्यों में अपना विश्वास कभी नहीं छोड़ा। यह उनका साहस, उनका विश्वास और उनकी वीरता की भावना ही थी जो मेरी नींव बनी। सेना केवल एक पेशा नहीं थी; यह मेरा परिवार बन गई। सबसे कम उम्र के जवान से लेकर सर्वोच्च अधिकारी तक, हर एक पद ने मुझे शक्ति दी और मुझे याद दिलाया कि इसका असली अर्थ क्या है।
इसके साथ ही, मेरी शिक्षिका आशा लता का भी उल्लेख आवश्यक है, जिन्होंने मेरे पिता के निधन के बाद मेरी देखभाल की। उन्हीं की प्रेरणा ने मेरे भीतर सैनिक बनने का सपना जगाया। आज जो कुछ भी मैंने हासिल किया है, उसका श्रेय मैं उन्हें, अपनी सेना के परिवार को, और अपनी पत्नी व बेटी को देता हूँ, जो आज मेरी शक्ति के स्तंभ हैं।
8) प्रश्न: आज आप पूर्व मुख्यमंत्री के पर्सनल असिस्टेंट हैं। यह ज़िम्मेदारी आपको कैसे मिली?
उत्तर: जनरल कृष्णा राव की सेवा करते हुए, जीवन ने मुझे एक और महत्वपूर्ण अवसर दिया। उनके निवास सैनिकपुरी में अक्सर संयुक्त आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री उनसे मिलने आते थे, क्योंकि उनका जनरल साहब से लंबा जुड़ाव रहा था।
मुख्यमंत्री अक्सर मेरे अनुशासन, आदर और कर्तव्यनिष्ठा को देखते थे। जनरल साहब के निधन के बाद, उन्होंने इन्हीं गुणों को याद कर मुझे अपना पर्सनल असिस्टेंट नियुक्त किया। यह केवल एक पद नहीं था, बल्कि मेरे भीतर समाहित वफादारी, अनुशासन और सेवा के मूल्यों की पहचान थी।
9) प्रश्न: इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी संभालते हुए आपका दैनिक जीवन कैसा होता है और किस तरह के दबाव या चुनौतियाँ सामने आती हैं?
उत्तर: मेरे लिए कोई भी पद उपलब्धि नहीं, बल्कि केवल कर्तव्य है। हर दिन चुनौतीपूर्ण होता है, और हर चुनौती को मैं गर्व से स्वीकार करता हूँ। जो भी दबाव आता है, उसे मैं नौकरी का दबाव नहीं मानता, बल्कि राष्ट्र की ज़िम्मेदारी मानता हूँ। यही सोच मुझे आगे बढ़ाती है। जैसा हम कहते हैं — “ये दिल माँगे मोर” — मेरा जोश हमेशा ऊँचा रहता है और मेरा समर्पण अटूट।
10) प्रश्न: आप जम्मू–कश्मीर के उन युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे, जो कठिन परिस्थितियों में रहकर भी बड़े सपने देखते हैं?
उत्तर: मेरा संदेश है कि आजकल युवाओं के लिए आईटी, सॉफ्टवेयर जैसी आधुनिक शिक्षा ज़रूरी है, लेकिन मातृभूमि के लिए थोड़ा रक्त देना भी उतना ही आवश्यक है। सच्ची सेवा केवल पैसे या रोज़गार के लिए नहीं, बल्कि शौर्य, साहस और सम्मान के लिए होती है। जीन्स–शर्ट जैसी विलासिताएँ पैसे से खरीदी जा सकती हैं, परंतु ऑलिव–ग्रीन वर्दी कभी खरीदी नहीं जा सकती — उसे केवल साहस और बलिदान से अर्जित किया जा सकता है।
आज मुझे गर्व है कि कश्मीरी युवा यूपीएससी की तैयारी में आगे बढ़ रहे हैं और पहले से अधिक प्रगति कर रहे हैं। मेरी विशेष शुभकामना है कि कश्मीरी पंडित और जम्मू–कश्मीर के सभी युवा साहस के साथ आगे बढ़ें, राज्य का गौरव बढ़ाएँ और भारत माता का नाम रोशन करें।
11) प्रश्न: आपने अपनी कठिनाइयों से सबसे बड़ा सबक क्या सीखा?
उत्तर: मेरे लिए संघर्ष ही सबक हैं — हर संघर्ष जीवन की किताब में एक नई पंक्ति लिखता है। जितना अधिक संघर्ष होगा, जीवन की कहानी उतनी ही मजबूत और प्रेरणादायी बनेगी। मैंने इसे स्वयं जिया है। और जनरल कृष्णा राव से मैंने यह सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा ली — सीखना कभी मत छोड़ो, सेवा करना कभी मत छोड़ो। हर संघर्ष ने मुझे और दृढ़ संकल्प के साथ राष्ट्र की सेवा का अवसर दिया।
12) प्रश्न: भविष्य की ओर देखते हुए, आप किन लक्ष्यों या सामाजिक योगदानों पर ध्यान केंद्रित करना चाहेंगे?
उत्तर: मेरे लिए उत्तर सरल है — मैं अपनी अंतिम सांस तक राष्ट्र की सेवा करूँगा। इसके साथ ही, मैं अपने वर्दीधारी भाइयों, हमारे वेटरन्स की आवाज़ उठाना चाहता हूँ, जो कभी–कभी सामाजिक कल्याण की समस्याओं से जूझते हैं और राज्य से मिलने वाले उचित लाभों में कठिनाई झेलते हैं। उन्होंने अपना सबकुछ देकर इस देश की रक्षा की है, अब उनकी गरिमा और भलाई की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। यही मेरा आगे का मिशन है।